बॉम्बे हाई कोर्ट ने मेडिकल बोर्ड की राय मानने से इनकार करते हुए एक महिला को 32 सप्ताह की गर्भवती होने पर गर्भपात कराने या न करने का अधिकार देकर एक अच्छा और सामाजिक सुधार का फैसला लिया है। इससे यदि किसी की जान को कोई खतरा नहीं होगा तो जबरन गर्भधारण और समाज में व्याप्त पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह फैसला सिर्फ इसी मामले में लागू होगा या अन्य मामलों में भी मान्य होगा। मेरा मानना है कि कोर्ट ने 20 जनवरी को जो आदेश दिया है कि बुद्धिजीवियों को बड़े पैमाने पर समीक्षा करनी चाहिए और यह स्पष्ट करना चाहिए कि यह फैसला कहां और किन परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है, क्योंकि समाज में ऐसे लोग हैं जिन्हें पूरी जानकारी नहीं है। अधूरी जानकारी को वे अन्य रूपों में भी ले सकते हैं। और उन हालातों को किसी भी महिला के गर्भवती होने के बाद उसके और उसके होने वाले बच्चे के लिए दर्दनाक बनते देर नहीं लगेगी। जहां तक भ्रूण में गंभीर विसंगतियां पाई जाती हैं, उसका चिकित्सकीय उपचार भी किया जा सकता है। लेकिन कई मामलों में ऐसा भी हो सकता है कि भ्रूण परीक्षण करवाने के बाद कई लोग अपने मन के अनुसार संतान न होने की शंका से गर्भपात का विचार करने लगें और यह स्थिति उत्पन्न न हो, इसके लिए समाज सुधारक विद्वान कानूनविदों को आगे आना चाहिए और समाज के कल्याण के लिए काम करना चाहिए। मार्गदर्शन करें। जहां तक कोर्ट के फैसले की बात है तो यह समयानुकूल है। प्रतिभाशाली लोगों को विशेष रूप से युवा पीढ़ी और बुजुर्गों के मार्गदर्शन के लिए इन निर्देशों को पढ़ने में देरी नहीं करनी चाहिए।
-रवि कुमार बिश्नोई
संस्थापक – अखिल भारतीय समाचार पत्र संघ आइना
आरकेबी फाउंडेशन के संस्थापक, एक राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय सामाजिक सेवा संगठन
संपादक दैनिक केसर फ्रेग्रेन्स टाइम्स
ऑनलाइन समाचार चैनल tajakhabar.com, meerutreport.com
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