हम अपने दुखों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि हम अपने सुखों का कारण खुद को मानते हैं। यदि हम स्वयं सुख के कारण हैं तो कोई और दुःख का कारण कैसे हो सकता है?
चाहे सुख हो या दुख, हम स्वयं ही दोनों के कारण हैं, क्योंकि हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारे कर्मों का फल है। यदि सुख हमारे कर्मों का फल है तो दु:ख भी हमारे ही कर्मों का फल है।
खैर, दुख और सुख अपने आप में कुछ नहीं हैं। ये विभिन्न प्रकार की मानसिक अवस्थाएँ हैं जो किसी घटना के प्रति हमारी चेतना या भावना के कारण उत्पन्न होती हैं। अच्छा होता है तो हमारे सुख का कारण बनता है और बुरा होता है तो दुख का कारण बनता है।
एक बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो दोनों स्थितियों में खुद को सम और संतुलित रखने की कोशिश करता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने विवेक द्वारा यह स्वीकार करता है कि विपत्ति के समय मैं विचलित हो जाऊं या संयमित हो जाऊं, मुझे उस स्थिति को सहना ही होगा, क्योंकि वह स्वयं उसका कारण है।
उसे भी वही काटना पड़ेगा जो उसने बोया है। उसे अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ेगा। उन कर्मों का अनुभव किए बिना, वे कई जन्मों तक आपका पीछा करते रहेंगे। उसका फल चाहे कुछ भी हो, चाहे रो-रोकर सहे या सब्र से सहे, उसे भोगे बिना वह पीछा नहीं छोड़ने वाला।
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News Source: https://royalbulletin.in/joy-and-sorrow/36301